संसद में सरकार के पास संख्या बल है? आसान नहीं 'वन नेशन, वन इलेक्शन' की राह, जानें क्या-क्या हैं चुनौतियां

Updated on 19-09-2024 01:43 PM
नई दिल्ली: 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' (One Nation One Election) के प्रस्ताव को मोदी कैबिनेट ने मंजूरी दे दी है। इस प्रस्ताव में लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव है। यह प्रस्ताव पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली हाई लेवल कमेटी की सिफारिशों पर आधारित है। देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस इसको शिगूफा बता रही है। अन्य विपक्षी दल भी मोदी सरकार की इस पहल को व्यवहारिक नहीं बता रहे हैं। हर किसी के मन में सवाल आ रहा है कि क्या 'वन नेशन, वन इलेक्शन' को लागू करना मोदी सरकार के लिए आसान होगा? आइए जानते हैं इस प्रस्ताव के बीच कौन-कौन सी बड़ी अड़चन आ सकती है।

विरोध में हैं कितने राजनीति दल?


पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए, सरकार ने यह कदम उठाया है। इस साल की शुरुआत में कोविंद समिति से 47 राजनीतिक दलों ने एक साथ चुनाव कराने के बारे में अपनी राय साझा की थी। इनमें से 32 दलों ने इस विचार का समर्थन किया, जबकि 15 ने इसका विरोध किया। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, NDA की सहयोगी तेलुगु देशम पार्टी ने सैद्धांतिक रूप से इसका समर्थन किया है। समिति के समक्ष इस कदम का समर्थन करने वाले सभी 32 दल या तो BJP के सहयोगी थे या फिर पार्टी के प्रति मित्रवत थे। हालांकि, BJD ने BJP का साथ छोड़ दिया है। समिति के समक्ष इस कदम का विरोध करने वाले 15 दलों में से 5 NDA के बाहर के दल हैं, जिनमें कांग्रेस भी शामिल है।

संविधान में संशोधनों की जरूरत


कोविंद समिति ने एक साथ चुनाव कराने के लिए कुछ जरूरी बदलाव बताए हैं। समिति का कहना है कि संविधान में संशोधन करना होगा, जिसके लिए संसद की मंजूरी जरूरी है। इसके साथ ही, सभी वोटरों की एक लिस्ट बनाने के लिए अधिकांश राज्यों की विधानसभाओं से भी सहमति लेनी होगी।
संविधान में संशोधन करने के तरीके के बारे में अनुच्छेद 368 (2) में लिखा है, 'इस संविधान का संशोधन, केवल संसद के किसी भी सदन में, उस उद्देश्य के लिए विधेयक पेश करके ही प्रारंभ किया जा सकता है और जब विधेयक प्रत्येक सदन द्वारा उस सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुमत से और उस सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से पारित हो जाता है, तो वह राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत किया जाएगा जो विधेयक पर अपनी अनुमति देगा और तदनुसार विधेयक के उपबंधों के अनुसार संविधान संशोधित हो जाएगा।'

लोकसभा और राज्यसभा में टिक पाएगा विधेयक?


लोकसभा में किसी भी संवैधानिक संशोधन को पारित करने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। यानी उपस्थित और वोटिंग करने वाले दो तिहाई सदस्यों का समर्थन जरूरी है। अगर सभी 543 सांसद मौजूद हों तो 362 सांसदों का समर्थन चाहिए। अभी विपक्षी गठबंधन 'इंडिया' के पास 234 सांसद हैं। संविधान संशोधन के लिए साधारण बहुमत के साथ-साथ विशेष बहुमत भी जरूरी है। इसका मतलब है कि संशोधन पास कराने के लिए सत्ता पक्ष को विपक्ष का भी समर्थन चाहिए होगा। उधर एनडीए के पास राज्यसभा में 113 सांसद हैं और 6 मनोनीत सदस्य उनका साथ देते हैं। 'इंडिया' गठबंधन के पास 85 सांसद हैं। अगर सभी सांसद वोट देने आए तो दो-तिहाई बहुमत के लिए 164 वोट चाहिए होंगे। कुछ संवैधानिक बदलावों के लिए राज्य विधानसभाओं की मंजूरी भी जरूरी होती है। अगर राज्यसभा में पूरे सदस्य उपस्थित रहें, तो कुल संख्या 164 होगी।

चुनावी उलझन को कैसे संभालेगी सरकार?


पूरे देश में एक साथ चुनाव कराना आसान नहीं है। इस साल मई-जून में लोकसभा चुनाव हुए थे, जबकि ओडिशा, आंध्र प्रदेश, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में भी संसदीय चुनाव के साथ ही विधानसभा चुनाव हुए थे। जम्मू-कश्मीर और हरियाणा में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया चल रही है, जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में भी इस साल के अंत में चुनाव होने हैं। दिल्ली और बिहार उन राज्यों में शामिल हैं, जहां 2025 में चुनाव होने हैं। असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी में वर्तमान विधानसभाओं का कार्यकाल 2026 में समाप्त होगा। जबकि गोवा, गुजरात, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभाओं का कार्यकाल 2027 में समाप्त होगा। हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, त्रिपुरा और तेलंगाना में राज्य विधानसभाओं का कार्यकाल 2028 में समाप्त होगा। वर्तमान लोकसभा और इस वर्ष चुनाव में गए राज्यों की विधानसभाओं का कार्यकाल 2029 में समाप्त होगा।

विपक्षी दलों को साथ ला पाएगी सरकार?


'एक राष्ट्र, एक चुनाव' पहल की सफलता संसद में दो संविधान संशोधन विधेयकों को पारित करने पर निर्भर करती है, जिसके लिए विभिन्न राजनीतिक दलों के व्यापक समर्थन की आवश्यकता होगी। चूंकि लोकसभा में बीजेपी के पास अपने दम पर बहुमत नहीं है, इसलिए उसे न केवल अपने NDA सहयोगियों बल्कि विपक्षी दलों को भी साथ लाना होगा। NDA की प्रमुख घटक जनता दल (यूनाइटेड) ने केंद्रीय मंत्रिमंडल के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इस तरह के कदम से देश बार-बार होने वाले चुनावों से मुक्त होगा, सरकारी खजाने पर बोझ कम होगा और नीतिगत निरंतरता आएगी। JDU के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद ने कहा कि 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' के दूरगामी परिणाम होंगे और इससे देश को व्यापक लाभ होगा। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि एक साथ चुनाव व्यावहारिक नहीं हैं और आरोप लगाया कि बीजेपी चुनाव नजदीक आने पर वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए इस तरह की बातें करती है।

जानें सरकार के पास क्या तरीका है


इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, आवश्यक सहमति बनाने का एक तरीका संशोधन विधेयकों को एक संसदीय समिति, जैसे कि स्थायी समिति या संयुक्त संसदीय समिति को भेजना है। इन समितियों में विपक्षी सदस्य शामिल होते हैं और वहां चर्चा से आम सहमति बन सकती है। केंद्र को राज्यों को भी शामिल करना होगा। स्थानीय निकायों को एक साथ चुनाव योजना का हिस्सा बनाने के लिए, कम से कम आधे राज्यों को आवश्यक संवैधानिक संशोधन का अनुमोदन करना होगा। हालांकि बीजेपी वर्तमान में एक दर्जन से अधिक राज्यों में शासन करती है, लेकिन हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड में आगामी विधानसभा चुनाव राजनीतिक संतुलन को बदल सकते हैं।

पहले भी एक साथ हुए हैं चुनाव


भारत में पूर्व में 1951 और 1967 के बीच एक साथ चुनाव होते रहे हैं। 1967 में यह सिलसिला चरम पर था, जब 20 राज्यों में लोकसभा चुनावों के साथ-साथ विधानसभा चुनाव भी हुए थे। 1977 में यह संख्या घटकर 17 रह गई, जबकि 1980 और 1985 में 14 राज्यों में एक साथ चुनाव हुए थे। इसके बाद, मध्यावधि चुनाव सहित कई कारणों से चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे।

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