सार
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राज्य सभा में केन्द्र सरकार के फर्जी बाबाओं पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने की मांग की है। अगर सरकार पेपर लीक पर सख्त कानून बना सकती है तो फिर फर्जी बाबा जो लोगों को गुमराह कर समाजद्रोह कर रहे हैं, उन पर लगाम क्यों नहीं लगनी चाहिए? लेकिन कोई सरकार ऐसा शायद ही करेगी, क्योंकि बाबा अब आध्यात्मिक प्रचार के वाहक ही नहीं राजनीतिक संदेश के अघोषित प्रचारक भी हैं।
विस्तार
आज देश में आजादी का अमृतकाल हो न हो, लेकिन फर्जी बाबाओं का स्वर्णकाल जरूर चल रहा है। यूपी के हाथरस जिले के सिकंदराराऊ थाने के फुलरई गांव में एक स्वयंभू बाबा के अंधभक्तों ने बाबा की चरण रज सिर माथे लगाने के चक्कर में जिस तरह 121 जानें गंवाई हैं, वह समूचे देश में बाबावाद के कैंसर के लाइलाज होने का निशानी है।
सच्चे निर्मोही संतों की जगह अब माया मोह में आकंठ डूबे फर्जी बाबाओं ने ली है, जो अब एक आम श्रद्धालु और सर्वशक्तिमान ईश्वर की बीच दलाल की भूमिका बड़ी चालाकी से निभा रहे हैं। हाथरस वाले मामले में हैरानी की बात यह है कि पुलिस और प्रशासन इस भयंकर हादसे के लिए बाबा को जिम्मेदार नहीं मान रहा है। उसका नाम अभी तक एफआईआर में भी नहीं है। लेकिन पुलिस उसे पकड़ने के लिए दर- दर की खाक छान रही है। लेकिन बाबा पकड़ में नहीं आ रहा।
सवाल यह है कि क्या बाबा को इस मानव निर्मित हादसे का आरोपी न बनाने के पीछे कोई राजनीतिक मजबूरी है, कोई जातीय गणित है या फिर इस नरसंहार का भी कोई सियासी फायदा उठाने की दूरगामी सोच है? समझना मुश्किल है कि अगर बाबा इस मामले में निर्दोष है तो यूपी पुलिस बाबा को क्यों ढूंढ रही है और अगर बाबा इस हादसे के लिए जिम्मेदार है तो उसका नाम पुलिस की प्राथमिकी में क्यों नहीं है?
इस बीच पुलिस ने आयोजन समिति के 6 लोगों को गिरफ्तार किया है और मुख्य आरोपी पर 1 लाख रुपये. का इनाम घोषित किया है। उधर अज्ञातवासी भोले बाबा ने एक वकील के जरिए अंग्रेजी में एक संवेदना संदेश भक्तों ने नाम जारी किया। यह भी अपने आप में मजाक है, जिस बाबा को ठीक से शुद्ध हिंदी भी बोलनी नहीं आती और जिसके लाखों भक्तों ग्रामीण क्षेत्रों से आते हों, बाबा उन्हें अंग्रेजी में सांत्वना दे रहा है। इस संवेदना संदेश की भाषा भी निहायत गैर जिम्मेदाराना है।
बाबा ने कहा- ‘आश्रम में जो हादसा हुआ, उसके पीछे शरारती तत्वों का हाथ है। मृतकों के प्रति संवेदना है। लेकिन मैं इस हादसे के पहले ही आश्रम से निकल लिया था।‘ अगर इस बात को भी थोड़ी देर के लिए सही मान लिया जाए कि बाबा हादसे के पहले निकल लिया था तो हादसे की सूचना मिलते ही बाबा को तुरंत आश्रम लौटना चाहिए था। अपने ही मौत से जूझते भक्तों की मदद करनी चाहिए थी। बाबा की मोबाइल डिटेल से खुलासा हो चुका है कि उसे हादसे की जानकारी तभी मिल गई थी, लेकिन वह भाग खड़ा हुआ।
ये वही बाबा है, जो हमेशा अपने भक्तों को ‘मानव धर्म सर्वश्रेष्ठ है’, की शिक्षा रात-दिन देता है। लेकिन जब इस मानव धर्म की अग्नि परीक्षा की घड़ी आई तो खुद ही उसे कचरे की टोकरी में डाल दिया। आखिर मौत की मिट्टी को माथे लगाने की होड़ में दम तोड़ते भक्तों को उनके भाग्य पर छोड़ना कौन सा मानव धर्म है? और बाबा ही क्यों, उसके सेवादार नामधारी तमाम गुर्गे भी हादसे के वक्त भाग खड़े हुए।
इस भयावह हादसे के पीछे के कारणों की कई थ्योरियां और कडि़यां अब सामने आ रही हैं। जिसमे स्थानीय पुलिस प्रशासन की लापरवाही भी शामिल है। लाखों लोगों के समागम को बहुत हल्के में लिया गया। बाबा के अतीत की कुंडली भी खुल चुकी है। यह साफ हो चुका है कि बाबा सूरजपाल जाटव कभी यूपी पुलिस में सिपाही था। बाद में खुद को दिव्य आध्यात्मिक शक्ति से लैस बताने लगा। संतान न होने से उसने एक भतीजी को गोद लिया था। जिसकी मौत पर उसे आध्यात्मिक शक्ति से फिर से जिंदा करने का दावा किया।
कहते हैं कि युवती कुछ क्षणों के लिए हरकत में भी आई और बाद में मर गई। इस फर्जीवाड़े को लेकर सूरजपाल के खिलाफ पुलिस ने मुकदमा भी दर्ज किया था। लेकिन इस पर उसके अनुयायियों ने श्मशान घाट पर ही भारी हंगामा किया था। बाद में धीरे- धीरे सूरजपाल ने खुद को भगवान कृष्ण के अवतार के रूप में प्रचारित करना शुरू किया। लेकिन दूसरे समकालीन बाबाअोंकी तुलना में उसने खुद को मीडिया से दूर रखा। भोले बाबा ने माउथ पब्लिसिटी और भोले भाले लोगों को सम्मोहित कर अपना जाल बिछाया। करोड़ों की सम्पत्ति बटोरी।
आध्यात्मिक शक्ति से लोगों के समस्या निदान का ऐसा वातावरण तैयार किया कि लोग हैंडपंप के सादे पानी को गंगाजल से भी ज्यादा पवित्र और औषधिक मानने लगे। उसने एक पूरा तंत्र खड़ा किया, जो बाबा और उसकी पत्नी को दिव्य अवतार के रूप में प्रचारित करते हैं। इसमें शक नहीं कि ऐसे सभी बाबा अपनी वाणी और देहभाषा से लोगों को सम्मोहित करने और अलग आभा मंडल कायम करने की प्रतिभा रखते हैं। उनमें ब्रेन वाॅश करने की काबिलियत होती है। लोग बाबा की बातों को ब्रह्मवाक्य समझने लगते हैं।
बाबा को अवतारी पुरूष और दुनिया की हर समस्या का समाधान करने वाली दिव्यात्मा मानने लगते हैं। फुलरई आश्रम में बाबा की चरण रज माथे से लगाकर हर रोग का निदान होने की भ्रामक सोच इसी दिमागबंदी का नतीजा है। इस सोच की पराकाष्ठा तो तब दिखी, जब भोले बाबा के एक भक्त ने मीडिया से यह कहा कि बीमारी का इलाज तो डाॅक्टर करते हैं। लेकिन डाॅक्टर का दिमाग भोले बाबा ही नियंत्रित करते हैं। ये सभी अंध भक्त पढ़े लिखे हैं। मानो यह बाबा ही समाज का आध्यात्मिक डाॅक्टर है।
सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि आजादी के 75 साल में जहां देश में साक्षरता की दर 12 फीसदी से बढ़कर 76.32 फीसदी हो गई है, उसी अनुपात में समाज में अंध भक्ति और अवैज्ञानिक सोच भी बढ़ी है। लोग साक्षर तो हो रहे हैं लेकिन शिक्षित नहीं हो रहे। समाज को दिशा देने वाले सच्चे संतो के साथ साथ ऐसे ढोंगी बाबा पहले भी रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ सालों में इनकी संख्या तेजी से बढ़ी है।
अंधविश्वासी बाबावाद अब एक मुनाफे का धंधा बन चुका है। 2017 देश में ऐसे 14 फर्जी बाबा थे, जिनकी संख्या अब करीब ड्योढ़ी हो चुकी है और राजनीतिक संरक्षण इनकी दुकान को शो रूम में तब्दील कर देता है। हाथरस भगदड़ कांड भी मतिविहीन सोच के कारण हुआ हत्याकांड ही है। इस तरह भोले भाले लोगों को मारने की इजाजत किसी को कैसे दी जा सकती है?
हाथरस की घटना से देश के कुछ दूसरे बाबा भी सतर्क तो हुए हैं, लेकिन उनके हौसलों पर असर पड़ने वाला नहीं है। देश में धार्मिक और आध्यात्मिक बाबा धर्म का प्रचार करें, लोगों को धर्माचरण के लिए प्रेरित करें, इसमें किसी को कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन मूर्खताअों को गौरवान्वित करने का पाप न करें तो यह ज्यादा देशहित में होगा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इन बाबाअोंकी अब एक अलग कारपोरेट दुनिया है, जहां सिर्फ उन्ही का कानून चलता है। उन्हीं की मनमर्जी से धर्म, अधर्म, वेदना संवेदना, भोग लिप्सा और त्याग की बातें तय होती हैं।
ये लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान और सांसारिक माया मोह से दूर रहने की शिक्षा देते हैं और खुद सिर से पैर तक ऐयाशी में लिप्त रहते हैं। ऐसे में सवाल यह भी है कि लोग आखिर ऐसे पाखंडियों को ब्रह्म स्वरूप क्यों मान लेते हैं? क्या उनकी अपनी विचार शक्ति शून्य हो जाती है? या फिर जीवन संघर्ष से व्यथित लोग इन्हीं बाबाओं के रेडिमेड नुस्खों को ही अंतिम निदान मान लेते हैं? क्यों ऐसे बाबाअोंको कानूनन सजा होने के बाद भी उनका मायाजाल ध्वस्त नहीं होता, इसका ठीक ठीक उत्तर देना बहुत कठिन है।
इस बीच कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने राज्य सभा में केन्द्र सरकार के फर्जी बाबाओं पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने की मांग की है। अगर सरकार पेपर लीक पर सख्त कानून बना सकती है तो फिर फर्जी बाबा जो लोगों को गुमराह कर समाजद्रोह कर रहे हैं, उन पर लगाम क्यों नहीं लगनी चाहिए? लेकिन कोई सरकार ऐसा शायद ही करेगी, क्योंकि बाबा अब आध्यात्मिक प्रचार के वाहक ही नहीं राजनीतिक संदेश के अघोषित प्रचारक भी हैं। दूसरे, यह कैसे तय होगा कि कौन सा बाबा फर्जी है और कौन सा वाजिब?
धर्म की दुकान आस्था से चलती है और आस्था कोई सर्वमान्य पैमाना नहीं है। वैसे भी हमारे देश में तकरीबन सभी बाबाओं की अपनी- अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताएं हैं।
लिहाजा उनका भक्त सम्प्रदाय चुनावों में सियासी दलों के लिए फिक्स वोट बैंक का काम करता है। यही कारण है कि भोले बाबा की कारगुजारियां सामने आने के बाद भी उस पर हाथ डालने में यूपी सरकार और प्रशासन के हाथ कांप रहे हैं। इसी से साबित होता है कि ये बाबा लोगों को परमात्मा से भले न मिला पाएं, लेकिन राजनीतिक दलों की आत्मा पर उनकी पकड़ तगड़ी है।
आज जब देश में संविधान को सर माथे पर रखने और हवा में लहराकर उसकी रक्षा की कसमें खाई जा रही हो, तब कोई भी संविधान के अनुच्छेद 51 में उल्लेखित मूल कर्तव्यों का जिक्र नहीं करना चाहता। इस अनुच्छेद की धारा (ज) में साफ लिखा है कि समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास हमारा कर्तव्य है। लेकिन यही बात व्यवहार में दिखती तो शायद हाथरस जैसे हादसों से बचा जा सकता था।
-अजय बोकिल, लेखक, संपादक