तेहरान: ईरान के तेहरान स्थित आजाद यूनिवर्सिटी की सीढ़ियों पर दो नवंबर को बिना कपड़ों के बैठी अहू दरयाई की तस्वीर देख ईरान की महिलाओं को सहर खोडयारी याद आ गई होगी। 29 साल की फुटबॉल फैन सहर ने पांच साल पहले तेहरान में एक अदालत के सामने खुद को आग लगा ली थी। उसे मोरल पुलिस ने फुटबॉल स्टेडियम से मैच देखते हुए पकड़ा था। आरोप था कि उसने पब्लिक प्लेस पर हिजाब नहीं पहना। विद्रोह की वैसी ही चिंगारी अहू ने भी भड़काई। हिजाब न पहनने पर जब मोरल पुलिस ने उसे पकड़ा, तो उसने अपने कपड़े ही खोलकर रख दिए। दिलचस्प है कि जिस यूनिवर्सिटी और फुटबॉल स्टेडियम में दोनों घटनाएं घटीं, उनके नामों में आजादी शब्द प्रमुखता से दर्ज है।कपड़ों पर पहरा
दुनियाभर में महिलाओं का संघर्ष देश के हालात और वक्त के मुताबिक बदलता रहा है, लेकिन ईरान सरीखा सांप-सीढ़ी का खेल कहीं और नहीं दिखता। पुरानी पीढ़ी को 45 साल पहले का मंजर याद होगा, जब इसी तेहरान में 8 मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हजारों महिलाएं हाथों में तख्ती लिए पैदल मार्च कर रही थीं, कि क्रांति का मतलब पीछे कदम लेना नहीं होता। दरअसल नए सत्ता-नशीं हुए खुमैनी ने हिजाब को जरूरी बना दिया था। इस आदेश की आधिकारिक भाषा थी, ‘महिलाएं वर्कप्लेस पर नग्न होकर न जाएं।’ महिलाओं का हल्लाबोल इसी के खिलाफ था, लेकिन सरकारी दमन के आगे किसी की नहीं चली। सरकार तय करने लगी कि महिलाएं क्या और कैसे पहनें।आंदोलन में भूमिका
ईरानी महिलाओं ने हर जन आंदोलन में मर्दों का पूरा साथ दिया, इस उम्मीद में कि उन्हें भी बराबर लोकतांत्रिक अधिकार मिलेंगे, लेकिन राजनीति और व्यवस्था ने उन्हें हर बार ठगा। 1895 के तंबाकू विरोध से लेकर 1905-1911 के दरम्यान हुई संवैधानिक क्रांति तक में महिलाओं की क्या भूमिका रही, इसका इब्राहिम तयमोरी की किताब 'The Tobacco Boycott' में विस्तार से जिक्र है। 16 दिसंबर 1906 को इदलात अखबार में रिपोर्ट पब्लिश हुई कि महिलाओं ने जूलरी देकर आंदोलन को मजबूती दी।संगठित लड़ाई
हालांकि जब मोजफ्फर अद-दीन शाह काजर ने नए संविधान पर हस्ताक्षर किए, तो उसमें महिलाओं की ओर से एजुकेशन को लेकर दिया गया प्रस्ताव शामिल नहीं था। यहां से महिलाओं की लड़ाई संगठित तौर पर शुरू हुई। इसी दौरान कई महिलावादी संगठनों ने जन्म लिया। द असोसिएशन ऑफ विमिंस फ्रीडम, सीक्रेट लीग ऑफ विमिन, द विमिंस कमिटी जैसी संस्थाओं ने प्रतिरोध की आग को जिंदा रखा। नतीजतन आने वाले बरसों में लड़कियों के कई स्कूल खुले।नए शासन में दमन
महिलाओं के लिए 20वीं सदी के ईरान में पहलवी शासकों का वक्त कई लिहाज से बेहतर रहा। 1936 में हिजाब बैन हुआ और 1963 में वोट का अधिकार मिला। फैमिली प्रोटेक्शन कानून ने कई जरूरी सामाजिक समानताएं दिलाईं। लेकिन महिलाएं राजनीति में कदम बढ़ा पातीं, उससे पहले ही शाह का शासन चला गया और देश इस्लामिक रिपब्लिक बन गया। इसकी ख्वाहिश महिलाओं को भी थी। उन्हें इस्लामिक रिपब्लिक में समान अधिकार मिलने की उम्मीद थी, लेकिन वे फिर निराश हुईं। इस्लामिक रिपब्लिक में उनकी आजादी पूरी तरह छीन ली गई। जिन महिला संगठनों को इतनी मेहनत से खड़ा किया गया था, उन्हें सरकार ने बंद करा दिया। महिला वर्कर्स भूमिगत हो गईं। आधी आबादी के अधिकारों का जो दमन शुरू हुआ, तो अभी तक जारी है।विरोध का नया दौर
20वीं सदी का पूरा इतिहास ईरानी महिलाओं के प्रतिरोध का गवाह रहा है। फरवरी 1994 में होमा दरबी नाम की महिला ने हिजाब उतार कर खुद को आग लगा ली थी। 2017 में विदा मोवहाद नाम की एक लड़की ने हिजाब को सार्वजनिक तौर पर उछाला और उस तस्वीर ने ‘द गर्ल्स ऑन द रिवॉल्यूशन स्ट्रीट’ नाम के आंदोलन की शुरुआत की। सोशल मीडिया के दौर में क्रांति का तरीका भी बदला। लिबरल ढंग से कपड़े पहनना, गीत गाना और डांस करना - ये विरोध के नए तौर तरीके थे। महसा अमीनी के बाद इस प्रतिरोध ने जो विस्तार पाया, उसे सरकार तमाम कोशिश के बाद भी दबा नहीं पाई। अमीनी की मौत के बाद 2022 के विरोध प्रदर्शनों में महिलाओं ने हेडस्कार्फ उछाले, बाल काटे, सैनिटरी पैड से सीसीटीवी कैमरों को ढक दिया। ऐसे ही एक प्रदर्शन के दौरान यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट हमीदरेजा को गोली मारी गई थी। इंस्टाग्राम पर उसकी आखिरी पोस्ट थी, ‘अगर इंटरनेट हमेशा के लिए बंद हो जाए तो यह मेरी अंतिम पोस्ट होगी। लॉन्ग लिव विमिन, लॉन्ग लिव फ्रीडम, लॉन्ग लिव ईरान।’बदल रहा समाज
2022 के प्रदर्शनों के बाद ईरान में सख्ती बढ़ी है, तो महिलाओं का विरोध भी तीव्र हुआ है। दीवारों पर ग्रैफिटी बनाकर और दूसरे कलात्मक तरीकों से वे अपनी आवाज उठा रही हैं। छात्राओं का कहना है कि यूनिवर्सिटी में हिजाब को लेकर पहले से ज्यादा सख्ती बरती जा रही है, निगरानी बढ़ गई है। देश में करीब 20 लाख छात्राएं हैं। हालांकि, समाज भी बदल रहा है। साल 2020 का एक सर्वे बताता है कि 75% ईरानियों ने हिजाब को जरूरी बनाए जाने का विरोध किया, जबकि इस्लामी क्रांति के वक्त यह संख्या महज एक तिहाई थी। विरोध की दबी चिंगारी आजाद यूनिवर्सिटी जैसी घटना के रूप में सामने आ जाती है। ईरानी महिलाएं प्रतिरोध करना कभी नहीं भूलीं, बस नाम और चेहरे बदल जाते हैं।